Tuesday, October 21, 2014

लगता नहीं है दिल मिरा उजड़े दयार में - बहादुर शाह जफ़र

लगता नहीं है जी मेरा उजड़े दयार में
किस की बनी है आलम-ए-नापायेदार में

कह दो इन हसरतों से कहीं और जा बसें
इतनी जगह कहाँ है दिल-ए-दाग़दार में

उम्र-ए-दराज़ माँग कर लाये थे चार दिन
दो आरज़ू में कट गये दो इन्तज़ार में

कितना है बदनसीब "ज़फ़र" दफ़्न के लिये
दो गज़ ज़मीन भी न मिली कू-ए-यार में

मैं ग़जल का शौक़ीन हूँ ऐसा नहीं हैं पर कभी कभी मुझे कोई ग़जल अच्छी लग जाती है तोह उसके बारें में जान लेना अच्छा लगता हैं। यह ग़जल बहादुर शाह जफ़र की हैं जिनके बारें में मेरी जानकारी सिमित हैं। पर यह ग़जल मैंने जब पढ़ी और इसकी तलकीन सुनी मैंने लाल किला फिल्म से तोह मुझे इनकी उस वक़्त की मनोस्थिति का थोडा आभास हुआ। मैंने थोडा गूगल किया तोह पता लगा की यह ग़जल शहंशाह के आखिरी दिनों की हैं तभी तोह एक एक हर्फ़ में उनका दर्द मुखर हैं।

मुझे लगता हैं कि मुझे थोडा बहादुर शाह जफ़र के बारें में थोडा पढना चाहिए। थोडा और जानना चाहिए इस गज़ल के पीछे के दर्द को।

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