मैं उन पंक्तियों को अधुरा छोड़ आगे बढ़ गया था। उन्हें उनका भाग्य मुबारक यही सोच थी मेरी उस वक़्त । आज फिर विचार किया तोह आभास हुआ कि मैं ही उनका नायक हूँ। फिर से मैंने शब्दों की डोर में प्रेम का कंकड़ बाँध उछाल दिया इस विश्वास के साथ कि शायद इस बार कविता रुपी पतंग की चंचलता पे वश पा लूँगा। प्रेम विफल रहा। सोचा बेरोजगारी और बेकारी का संयोग कर उसमे चपलता भरें व्यंगो कि डोर से कविता कोई शिरा पकड़ लूँ। विफलता के कारण कभी कभी सोच से परें होते है।
मैं खुद को नायक समझने की गलती कर बैठा था? शायद मैं नायक तोह था परन्तु कविता पराधीन नहीं थी मेरे विचारों की। कमी होगी सम्भवतः मेरी भाषा की समझ और व्याकरण ज्ञान में भी। कविता रूठी हुई है। नहीं रूठी हुई नहीं हो सकती है क्योकि वोह तोह खुले आकाश में विचरण कर रही है। मेरे परिश्रम और ध्यान केंद्रित ना कर पाना भी अन्य कारणों में से एक रहे होंगे।
परन्तु दोष अकेले मेरा नहीं है। मैं कुछ कवियों पर भी दोषारोपण करना चाहता हूँ। अगर सूचि बनायीं जाए तोह अज्ञेय का नाम पहला होगा। कारण ? निम्नलिखित है।
- मेरा प्रेम प्रथम है पर मेरे प्रेम की परिभाषा इनकी द्वितीया पर अटक गयी है।
- मेरी अगली व्यथा छुपी हुई है इनकी कविता "नया कवि: आत्म स्वीकार" में
- मेरी प्रतीक्षा छुपी है इनकी कविता प्रतीक्षा-गीत में
- नदी के द्वीप में छुपी है मेरी आकांछाए और समस्त विचार
- मेरे पागलपन की परिभाषा खोयी है इनकी कविता संभावनाये में
सम्भवतः रात बीत जाएगी कारण और कवितायेँ गिनाते गिनाते। परन्तु छायावाद के प्रतिनिधि वात्सयायन (अज्ञेय) की गहरी छाया मेरी विचारश्रृंखला पर पड़ी है।आदरणीय अज्ञेय और उनकी कवितायेँ और उनके विचार आजकल निरन्तर मेरे साथ होते है। मैं सोचता हूँ किसी भाव पे कोई रचना गढ़ने की पर अज्ञेय की कृतियाँ मुझे ले जाती है अपने ब्रह्माण्ड में।
मैं कविता की पतंग पकड़ तोह नहीं पाता परन्तु भावविभोर हो अज्ञेय की कविता के सागर में गोते लगा लेता हूँ। आप सोचेंगे भला यह भी कोई कारण हुआ? यह तोह अच्छा ही है। मैं भी एक नए विकल्प की तरफ अग्रसर हो रहा हूँ।
जाते जाते आपको भी अज्ञेय की कविता विकल्प के साथ छोड़ रहा हूँ
वेदी तेरी पर माँ, हम क्या शीश नवाएँ?
तेरे चरणों पर माँ, हम क्या फूल चढ़ाएँ?
हाथों में है खड्ग हमारे, लौह-मुकुट है सिर पर-
पूजा को ठहरें या समर-क्षेत्र को जाएँ?
मन्दिर तेरे में माँ, हम क्या दीप जगाएँ?
कैसे तेरी प्रतिमा की हम ज्योति बढ़ाएँ?
शत्रु रक्त की प्यासी है यह ढाल हमारी दीपक-
आरति को ठहरें या रण-प्रांगण में जाएँ?
सचिदानंद हीरानंद वात्स्यायन 'अग्नेय' दिल्ली जेल, सितम्बर, 1931
PS: कुछ विचारों में त्रुटियाँ रह गयी होंगी। माफ़ करें। आपके विचारों का स्वागत है।
bahut hi sundar post hai ..
ReplyDeletekeep writing :)